Crypto traders hit with hefty tax penalty as IT Dept cracks down on P2P transactions

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Over the past few weeks, many crypto investors received income tax notices for non-payment of taxes on peer-to-peer (P2P) trades through foreign exchanges. A Binance spokesperson told Moneycontrol that the exchange has been closely monitoring and reporting suspicious trades to FIU-Ind. Rakesh (name changed) had sold crypto tokens worth Rs 98,500 through peer-to-peer (P2P) transactions for about Rs 100,000 back in 2022, making a meagre profit of Rs 1,500 on this sale. He received the entire amount in his bank account and the transaction happened through a centralised exchange. A few weeks ago, he received a notice from the income tax department flagging his Rs 100,000 deposit. On producing screen shots of the P2P trade and the statement generated by the exchange as a proof, the official asked him to pay 78% or Rs 78,000 in fine on a Rs 1,500 profit. He is one of the 50 plus customers of crypto tax platform Koinx who got such IT notices over the past few weeks. Koinx founder Punit Agarwa...

सिक्ख साम्राज्य के संस्थापक महाराजा रणजीत सिंह, जिन्होंने 10 साल की उम्र में लड़ा पहला युद्ध

 

एक बार एक क़ातिब ने सालों की मेहनत के बाद अपने हाथों से बहुत सुंदर लेख में क़ुरान की एक प्रति तैयार की. उसका वाजिब दाम पाने की ख़्वाहिश उसे लाहौर के दरबार खींच लाई.


उसने इस प्रति को महाराजा रणजीत सिंह के विदेश मंत्री फ़कीर अज़ीज़ुद्दीन को बेचने की कोशिश की. फ़कीर ने उसके काम की तारीफ़ तो की लेकिन उस कृति को ख़रीदने में अपनी असमर्थता जताई.


जब इन दोनों की बातचीत महाराजा के कानों में पड़ी तो उन्होंने उस क़ातिब को अपने दरबार में तलब कर लिया. उन्होंने क़ुरान की उस प्रति को देखते ही अपने माथे से लगाया और फिर ग़ौर से उस कृति को देखा. देखते ही उन्होंने क़ातिब को ऊँची कीमत दे कर उसे ख़रीद लिया.


कुछ देर बाद उनके विदेश मंत्री ने उनसे पूछा कि आप इस किताब के लिए इतनी ऊँची कीमत क्यों दे रहे हैं जब कि एक सिख के तौर पर आप इसका इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे?

रणजीत सिंह ने जवाब दिया, "शायद ईश्वर चाहता था कि मैं हर धर्म को एक आँख से देखूँ, इसलिए उसने मेरी एक आँख की रोशनी ले ली."

इस कहानी का कोई विश्वस्नीय स्रोत नहीं है लेकिन इस बात को रेखांकित करने के लिए ये कहानी आज तक सुनाई जाती है कि किस तरह रणजीत सिंह अपने इलाक़े के मुसलमानों, हिंदुओं और सिखों को साथ लेकर चलने में सफल हुए थे.


नेपोलियन से समानता

फ़्रांस के शासक नेपोलियन बोनापार्ट और महाराजा रणजीत सिंह के बीच हांलाकि 5000 किलोमीटर की दूरी थी, लेकिन दोनों समकालीन थे.

सर लेपेल ग्रिफ़िन ने अपनी किताब 'रणजीत सिंह' में लिखा था, "दोनों ही नाटे क़द के थे. दोनों ने बड़ी सैन्य जीत दर्ज की थी लेकिन दोनों ही अपनी ताक़त दूसरों को देने में असफल रहे."


1780 में पैदा हुए रणजीत सिंह देखने में अच्छे नहीं थे. चेचक के कारण बचपन में ही उनकी बाईं आँख चली गई थी और उनके चेहरे पर गहरे निशान रह गए थे.


एलेक्ज़ेंडर बर्न्स अपनी किताब 'अ वोयाज अप द इंडस टु लाहौर एंड अ जर्नी टू काबुल' में लिखते हैं, "रणजीत सिंह का क़द 5 फ़िट 3 इंच से अधिक नहीं था. उनके कंधे चौड़े थे, सिर बड़ा था और उनके कंधों में धँसा हुआ प्रतीत होता था. उनकी लंबी लहलहाती हुई सफ़ेद दाढ़ी उनकी वास्तविक उम्र से ज़्यादा होने का आभास देती थी. वो साधारण कपड़े पहनते थे और कभी भी गद्दी या सिंहासन पर नहीं बैठते थे."


एक अंग्रेज़ महिला एमिली ईडेन ने अपनी किताब 'अ कंट्री: लेटर्स रिटिन टू द सिस्टर फ़्रॉम अपर प्रोविंसेज़ ऑफ़ इंडिया' में लिखा था, "रणजीत सिंह देखने में एक बूढ़े चूहे की तरह थे जिनकी सफ़ेद मूँछ और एक आँख थी. वो अपना एक पैर दूसरे पैर के ऊपर रख कर बैठते थे और उससे उनका हाथ खेलता रहता था. उनकी एक अजीब-सी आदत थी कि वो सिर्फ़ एक पैर में लंबा मोज़ा पहनते थे. उनका मानना था कि मोज़ा पहनने से उनके पैर का गठिया उन्हें कम तकलीफ़ देगा. उन्होंने कई शक्तिशाली दुश्मनों को हरा कर अपना साम्राज्य बनाया था और उनके लोग उन्हें बेपनाह प्यार करते थे."

मुसलमानों को साथ लेकर चलने की कोशिश

जब सात जुलाई, 1799 को जब रणजीत सिंह की सेना ने चेत सिंह की सेना को हराकर लाहौर के किले के मुख्यद्वार में प्रवेश किया तो उन्हें तोपों की शाही सलामी दी गई.

लाहौर में घुसते ही उनका पहला काम था औरंगज़ेब द्वारा बनाई गई बादशाही मस्जिद में अपनी हाज़िरी देना. उसके बाद वो शहर की लोकप्रिय मस्जिद वज़ीर ख़ाँ भी गए थे.

मशहूर सिख अध्येता पटवंत सिंह अपनी क़िताब 'द सिख्स' में लिखते हैं, "ये जानते हुए कि उनकी अधिक्तर प्रजा मुसलमान है, रणजीत सिंह ने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे वो लोग खुद को अलग-थलग महसूस करें. उन्होंने लाहौर की प्रमुख मस्जिदों को सरकारी सहायता देना जारी रखा और इस बात को भी साफ़ कर दिया कि मुसलमानों पर इस्लामी क़ानून लागू होने पर उन्हें कोई एतराज़ नहीं है."

उन्होंने कई हिंदु और मुस्लिम अफ़सरों को अपनी सेना में नियुक्त किया.

उनके राज में निकाले गए सिक्कों पर रणजीत सिंह का नाम नहीं था, बल्कि उन्हें नानकशाही सिक्के कहा जाता था जिन पर फ़ारसी में एक वाक्य लिखा रहता था जिसका अर्थ होता था, "अपने साम्राज्य, अपना विजय और अपनी प्रसिद्धि के लिए मैं गुरु नानक और गुरु गोविंद सिंह का ऋणी हूँ."



अंग्रेज़ रणजीत सिंह की सैन्य ताक़त के मुरीद

महाराजा रणजीत सिंह एक अच्छे शासक होने के साथ-साथ एक क़ाबिल सैन्य कमांडर भी थे. उन्होंने सिख खालसा सेना बनाई थी, जिसे ब्रिटिश भारत की सर्वश्रेष्ठ सेना मानते थे.

अपनी किताब 'द सिख्स एंड द सिख वॉर' की प्रस्तावना में सर चार्ल्स गफ़ और आर्थर इनेस ने लिखा था, "भारत की ज़मीन पर वाॉडेवॉश की लड़ाई में फ़्रांसीसियों के बाद सिखों से ज़्यादा कड़े प्रतिद्वंदियों का सामना हमारा नहीं हुआ. 42 साल के रणजीत सिंह के शासन के दौरान उनकी सेना ने बुलंदियों की कई ऊँचाइयों को छूते हुए कई जीत दर्ज की."

अंग्रेज़ों से उनकी सीधी लड़ाई कभी नहीं हुई. लेकिन उन्होंने शाह शुजा को अपनी खोई हुई गद्दी वापस लेने और बारकज़इयों से लड़ने के लिए प्रेरित किया, जिनसे अंग्रेज़ व्यापारिक संधि करने की कोशिश कर रहे थे.

खुशवंत सिंह अपनी क़िताब में लिखते हैं, "महाराजा रणजीत सिंह ने अंग्रेज़ों को साफ़ कर दिया कि रूसी उनसे दोस्ती करने की कोशिश कर रहे हैं. नेपाल के राजा उनसे लगातार सम्पर्क में थे और इस तरह की भी अफवाहें थीं कि मराठों के प्रमुख और निज़ाम हैदराबाद ने भी उनसे मिलने के लिए अपने प्रतिनिधि भेजे थे."

पढ़े लिखे न होने के बावजूद सुघड़ प्रशासन

महाराजा रणजीत सिंह की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी. वो न तो लिख सकते थे और न ही पढ़ सकते थे. लेकिन पढ़े लिखे और क़ाबिल लोगों के लिए उनके मन में बहुत सम्मान था.

उनसे मिलने वाले लोग उनके बारे में अच्छी राय ले कर जाते थे.

एक फ़्रेंच यात्री विक्टर जाकमाँ ने अपनी क़िताब 'अ जर्नी टू इंडिया' में लिखा, "रणजीत सिंह की तुलना में हमारे अच्छे से अच्छे कूटनीतिज्ञ नौसीखिया हैं. मैंने अपने जीवन में इतने सवाल करने वाला भारतीय नहीं देखा. उन्होंने मुझसे भारत, ब्रिटेन, यूरोप और नेपोलियन के बारे में क़रीब एक लाख सवाल पूछ डाले. यही नहीं उनकी दिलचस्पी स्वर्ग-नर्क, ईश्वर-शैतान और न जाने कितनी चीज़ों में थी."

सैयद मोहम्मद लतीफ़ अपनी क़िताब 'महाराजा रणजीत सिंह पंजाब्स मैन ऑफ़ डेस्टिनी' में लिखते हैं, "उनके सहयोगी उन्हें सारे कागज़ात फ़ारसी, पंजाबी या हिंदी मे पढ़ कर सुनाते थे. अपने लोगों से वो पंजाबी में बात किया करते थे लेकिन यूरोपीय लोगों से हमेशा हिंदुस्तानी में बात करना पसंद करते थे. वो धार्मिक रूप से कट्टर नहीं थे लेकिन रोज़ गुरु ग्रंथ साहब का पाठ सुना करते थे."

वो लिखते हैं, "अंतिम समय में उनके बोलने की ताक़त चली गई थी लेकिन तब भी उनको पूरा होशोहवास था. वो धीरे से अपना हाथ दक्षिण की तरफ़ हिलाते थे, जिसका अर्थ होता था कि उन्हें ब्रिटिश सीमा से आ रही ख़बरे बताई जाए. जब उनका हाथ पश्चिम की तरफ़ हिलता था तो इसका मतलब होता था कि अफ़गानिस्तान से क्या ख़ुफ़िया ख़बरें आ रही हैं."

जान लेने के ख़िलाफ़

महाराजा रणजीत सिंह की एक और ख़ास बात थी, उन्होंने युद्ध क्षेत्र को छोड़ कर कभी भी किसी की जान नहीं ली और हमेशा अपने दुश्मनों को हराने के बाद उनसे नर्मी से पेश आए.

उनका राज्य पश्चिम में ख़ैबर दर्रे से अफ़गानिस्तान की पहाड़ी श्रंखला के साथ-साथ दक्षिण में हिंदुकुश, दर्दिस्तान और उत्तरी क्षेत्र में चितराल, स्वात और हज़ारा घाटियों तक फैला हुआ था.

इसके अलावा कश्मीर, लद्दाख़, सतलुज नदी तक का इलाक़ा, पटियाला, जिंद और नाभा तक उनका साम्राज्य था. रणजीत सिंह ने कुल बीस शादियाँ कीं. इनमें से दस परंपरागत शादियाँ थीं. उनकी पत्नियों में पाँच सिख, तीन हिंदु और दो मुस्लिम महिलाएं थीं.

इसके अलावा उन्होंने चादर रस्म के ज़रिए दस शादियां और की थीं. हरिराम गुप्ता के अनुसार उनके हरम में 23 अन्य महिलाएं भी थीं

13 साल की नर्तकी पर आया दिल

लाहौर का महाराजा बनने के बाद रणजीत सिंह का दिल एक 13 साल की नाचने वाली मुस्लिम लड़की मोहरान पर आ गया था और उन्होंने उससे शादी करने का फ़ैसला किया.

सर्बप्रीत सिंह अपनी क़िताब 'द केमेल मर्चेंट ऑफ़ फ़िलाडेल्फ़िया' में लिखते हैं, "उस नाचने वाली लड़की के परिवार में प्रथा थी कि होने वाले दामाद को तभी स्वीकार किया जाता था जब वह अपने ससुर के घर में चूल्हा जलाए."

"मोहरान के पिता अपनी बेटी का विवाह रणजीत सिंह से नहीं करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने ये सोच कर उनके सामने ये शर्त रख दी कि महाराजा होते हुए रणजीत सिंह इस शर्त को पूरा नहीं कर पाएंगे. लेकिन रणजीत सिंह मोहरान के प्यार में इस हद तक डूब चुके थे कि उन्होंने बिना पलक झपकाए अपने होने वाले ससुर की ये बात स्वीकार कर ली. लेकिन रूढ़िवादी सिखों ने इसका बहुत बुरा माना."

अकाल तख़्त के सामने पेशी

सर्बजीत सिंह आगे लिखते हैं, "महाराजा को अकाल तख़्त के सामने पेश होने के लिए कहा गया. रणजीत सिंह ने स्वीकार किया कि उनसे ग़लती हुई है और वो इसके लिए माफ़ी चाहते हैं. लेकिन इसके बावजूद उन्हें पीठ पर सौ कोड़े मारने की सज़ा सुनाई गई. उनकी कमीज़ उतारी गई और उन्हें अकाल तख़्त के बाहर इमली के पेड़ के तने से बाँध दिया गया."

"महाराजा की विनम्रता देख कर वहाँ मौजूद कुछ लोगों की आँखों में आँसू आ गए. तभी अकाल तख़्त के जत्थेदार फूला सिंह ने खड़े होकर ऐलान किया कि महाराजा ने अपनी ग़लती स्वीकार कर ली है और अकाल तख़्त के आदेश को मानने के लिए तैयार हो गए हैं. इसलिए उनकी तारीफ़ की जानी चाहिए. चूँकि वो महाराजा हैं और सम्मान के हक़दार हैं, इसलिए इस सज़ा को सौ कोड़ों से घटा कर सिर्फ़ एक कोड़ा किया जाता है. यह सुनना था कि वहाँ मौजूद सभी लोग खड़े हो गए और तालियाँ बजाने लगे."

बाद में रणजीत सिंह ने मोहरान के लिए एक मस्जिद बनवाई जिसे आज मस्जिद-ए-मोहरान के नाम से जाना जाता है.

जे डी कनिंगम अपनी किताब 'हिस्ट्री ऑफ़ द सिख्स' में लिखते हैं, "मोहरान का रणजीत सिंह पर इतना असर था कि 1811 में उन्होंने उनके नाम पर सिक्के ढ़लवाए."

पेशावर पर जीत

अक्तूबर, 1818 में रणजीत सिंह ने पश्तून नगर पेशावर पर हमला बोला. पेशावर ख़ैबर पास से 10 मील और काबुल से 150 मील की दूरी पर था.

19 नवंबर, 1819 को महाराजा और उनकी सेना पेशावर में दाख़िल हुई.

अगले दिन महाराजा रणजीत सिंह हाथी पर बैठ कर पेशावर की सड़कों पर घूमे.

खुशवंत सिंह अपनी क़िताब 'रणजीत सिंह महाराजा ऑफ़ द पंजाब' में लिखते हैं, "700 सालों में ये पहला मौक़ा था जब इस शहर ने किसी भारतीय विजेता को इसकी सड़कों पर चलते हुए देखा. चार दिन पेशावर में रहने के बाद रणजीत सिंह जहाँदाद ख़ाँ को वहाँ का गवर्नर बना कर लाहौर वापस लौट आए. लेकिन कुछ दिनों के अंदर ही फ़तह ख़ाँ के एक भाई दोस्त मोहम्मद ख़ाँ ने जहाँदाद ख़ाँ को उनके पद से हटा दिया. उन्होंने महाराजा रणजीत सिंह को एक लाख रुपए वार्षिक नज़राना देने का प्रस्ताव रखा से रणजीत सिंह ने स्वीकार कर लिया."

फ़्रेंच कमांडरों की सेना में नियुक्ति

1815 में नेपोलियन की हार के साथ भारत से अंग्रेज़ों को हटाने का फ़्रेंच सपना तो टूट गया, लेकिन इसकी वजह से कुछ फ़्रेंच और इटालियन सैनिकों ने यूरोप से बाहर आ कर नौकरी करने का मन बनाया.

1822 में दो फ़्रेंच कमांडर ज्यां फ़्राँस्वा अला और ज्यां बैपटिस्ट वेंतुआ महाराजा रणजीत सिंह की सेना में शामिल हो गए. कुछ सप्ताह के भीतर पचास से अधिक गोरे और यूरोपीय सैनिक भी महाराजा की सेना में शामिल हो गए.

वर्ष 1829 में रणजीत सिंह ने एक हंगारियन होम्योपैथ डॉक्ट मार्टिन होनिगबर्गर को अपना निजी डाक्टर बना लिया.

राजमोहन गाँधी अपनी क़िताब 'पंजाब अ हिस्ट्री फ़्रॉम औरंगज़ेब टू माउंटबेटन' में लिखते हैं, "रणजीत सिंह ने इन यूरोपीय लोगों के अपनी सेना में काम करने के लिए कुछ शर्तें लगाईं. उनसे कहा गया कि वो न तो सिगरेट पिएंगे और न ही दाढ़ी कटाएंगे. उनके गोमाँस खाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया. उनसे कहा गया कि वो स्थानीय महिलाओं से शादी करें और पंजाब छोड़ने से पहले महाराजा की अनुमति लें."

8 मई, 1939 को अंग्रेज़ों और रणजीत सिंह की मदद से शाह शुज़ा एक बार फिर अफ़गानिस्तान के बादशाह बने. शेख़ बासवाँ के नेतृत्व में महाराजा रणजीत सिंह की सेना का मुस्लिम दस्ता शहज़ादे तैमूर को ख़ैबर पास के रास्ते काबुल ले कर आया.

कुछ दिनों बाद जब शाह शुजा, अंग्रेज़ों और लाहौर के सैनिकों ने एक संयुक्त विजय जुलूस निकाला तो काबुल की सड़कों पर रणजीत सिंह के मुस्लिम सैनिकों ने लाहौर का झंडा बुलंद किया.

लंबी बीमारी के बाद देहांत

17 अप्रैल, 1835 को महाराजा को पक्षाघात हुआ, जिससे उनके जिस्म के दाहिने हिस्से ने काम करना बंद कर दिया.

वो कभी भी अच्छे मरीज़ नहीं साबित हुए. उनका इलाज करने वाले अंग्रेज़ डॉक्टर मैकग्रेगर ने कहा, "महाराजा किसी कीमत पर कड़वी दवाएं नहीं खाना चाहते थे. उन्होंने अपना दैनिक कार्यक्रम भी नहीं बदला. तेज़ बुख़ार में भी वो रोज़ सुबह पालकी में बैठ कर नदी किनारे चले जाते थे और फिर लौट कर दरबार में लोगों की शिकायतें सुनने लगते थे."

1837 में उन्हें दूसरा पक्षाघात हुआ और फिर उनकी तबीयत बिगड़ती चली गई.

जून, 1839 आते आते छह डाक्टर उनका इलाज कर रहे थे. इनमें से तीन उनके डाक्टर थे और तीन गवर्नर जनरल ने भेजे थे.

27 जून 1839 को महाराजा रणजीत सिंह ने अंतिम साँस ली.

हाँलाकि सिख धर्म में सती प्रथा को कोई मान्यता नहीं दी गई है लेकिन तब भी उनकी चार महारानियों ने ऐलान किया कि वो उनके साथ सती होंगी.

तब तक भारत में सती प्रथा पर प्रतिबंध लगे 10 साल बीत चुके थे लेकिन इसके बावजूद चार महारानियों के साथ सात ग़ुलाम लड़कियाँ भी महाराजा के साथ सती हुईं ताकि अगले जन्म में वो अपने मालिक की सेवा करने के लिए उपलब्ध रहें.

इसका वर्णन करते हुए सर्बप्रीत सिंह ने लिखा है, "महारानी महताब देवी जो गुड्डन के नाम से भी मशहूर थीं नंगे पैर हरम से बाहर निकलीं. पहली बार उन्होंने सार्वजनिक जगह पर पर्दा नहीं किया हुआ था. उनके साथ तीन रानियाँ और आईं. वो धीमे-धीमे चल रही थीं और उनके साथ सौ और लोग कुछ दूरी बना कर चल रहे थे. उनके कुछ आगे एक शख़्स उनकी तरफ़ मुंह उलटा कर चल रहा था."

"उसके हाथ में एक आईना था ताकि रानी उसमें अपना चेहरा देख कर ये इत्मिनान कर सकें कि सती होते समय उनके चेहरे पर कोई ख़ौफ़ नहीं था. सभी महारानियाँ सीढ़ियों के ज़रिए चिता पर चढ़ीं. रानियाँ महाराजा के सिरहाने बैठ गईं जब कि ग़ुलाम लड़कियाँ उनके पैर की तरफ़ बैठीं."

जैसी ही उनके बेटे खड़क सिंह ने उनकी चिता में आग लगाई, महाराजा रणजीत सिंह को 180 तोपों की अंतिम सलामी दी गई.

उनके प्रधानमंत्री राजा ध्यान सिंह ने चार बार उनकी चिता में कूदने की कोशिश की लेकिन वहाँ मौजूद लोगों ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया.

दो दिनों बाद जब उनकी अस्थियाँ लाहौर की सड़कों से गुज़रीं, सारे लोग सड़कों पर उमड़ आए. कुछ लोगों ने अपने घरों की छतों पर खड़े खड़े ही उनके ऊपर फूल बरसाए.



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